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Friday, June 20, 2025

विश्व में पुरातत्व की बेमिसाल धरोहर, छत्तीसगढ़ का खजुराहो

भगवान शिव को समर्पित भोरमदेव मंदिर कवर्धा

गोड राजाओं के देवता रहे भोरमदेव, पुरातत्व मंदिर खजुराहो एवं कोणार्क में विराजित शिवलिंग जैसा कवर्धा का प्राचीन शिवलिंग

छत्तीसगढ़ का खजुराहो यानी कवर्धा में स्थित भोरमदेव मंदिर। भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर पुरातत्व की बेमिसाल धरोहर होने के साथ ही आस्था का बहुत बड़ा केंद्र हैं। खास बात यह है कि जिस कृतियों के चलते इसे छत्तीसगढ़ के खजुराहो की संज्ञा दी गई, यह मंदिर उससे भी पुराना है। मध्य प्रदेश स्थित खजुराहो के मंदिर जहां 10वीं सदी के बताए जाते हैं, वहीं इसका निर्माण समय 7वीं शताब्दी का है। कवर्धा से करीब 10 किमी दूर मैकल पर्वत समूह से घिरा यह मंदिर करीब हजार साल पुराना है। इस मंदिर की बनावट खजुराहो और कोणार्क के मंदिर के समान है। यहां मुख्य मंदिर की बाहरी दीवारों पर मिथुन मूर्तियां10 बनी हुई हैं। यहां के एक और मंदिर है, जिसे मड़वा महल कहा जाता था। वहां पर भी इसी तरह की प्रतिमाएं दीवारों पर बनाई गई थी। अब इसका पुराना स्ट्रक्चर तकरीबन ध्वस्त हो चुका है। मंदिर को फिर 11वीं शताब्दी में नागवंशी राजा गोपाल देव ने बनवाया था। इस संबंध में एक किंवदंती भी‎ प्रचलित है कि इसके निर्माता राजा‎ ने शिल्पियों को इसे एक ही रात्रि में‎ पूर्ण करने का आदेश दिया था। मान्यता है कि उस‎ समय 6 महीने का दिन और 6‎ महीने की रात होती थी। 6 माह पूर्ण होते होते प्रात:काल‎ सूर्योदय तक इसके शिखर में‎ कलश चढ़ाना शेष रह गया था,‎ इसलिए शिल्पियों ने उसे अधूरा ही‎ छोड़ दिया। अब भोरमदेव मंदिर में शिखर के हिस्से पर कलश नहीं है, वह स्थान सपाट है।‎
मंदिर करीब एक हजार साल पुराना है। बनावट खजुराहो-कोणार्क मंदिर जैसी है। ऐसा कहा जाता है कि गोड राजाओं के देवता भोरमदेव थे और वे भगवान शिव के उपासक थे। शिवजी का ही एक नाम भोरमदेव है। इसके कारण मंदिर का नाम भोरमदेव पड़ा। नागर शैली में बना हुआ मंदिर पांच फीट ऊंचे चबूतरे पर स्थित है। मंडप की लंबाई 60 फीट और चौड़ाई 40 फीट है। मंडप के बीच में 4 खंबे है और किनारे की ओर 12 खंबे हैं। मंडप में लक्ष्मी, विष्णु और गरूड़ की मूर्ति रखी है। गर्भगृह में पंचमुखी नाग की मूर्ति, नृत्य करते गणेश जी और मंदिर के चारों ओर बाहरी दीवारों पर भगवान विष्णु, शिव, चामुंडा की मूर्तियां लगी हैं। वर्तमान में भोरमदेव मन्दिर के‎ शिखर पर कलश नहीं है। यानी‎ यह कलश‎ विहीन है जबकि मंदिर के शिखर‎ पर 16वीं शताब्दी तक कलश‎ था। इसका उल्लेख मन्दिर के‎ दक्षिण द्वार के वाम पार्श्व में‎ शिलालेख संवत् 1608 के आधार‎ पर स्पष्ट है।‎ इसके मुताबिक महाराजाधिराज‎ भुवनपाल (मंडवा महल में वर्णित‎ राजा गोपाल देव के पौत्र व 8वें‎ नागवंशी राजा के शिवालय) के‎ मंदिर के शिखर पर कलश था। उस कलश को मांडवपति ने तोड़ा और‎ रतनपुर के महाराजा बाहुराय 16 वीं शती ई. में‎ विजय के प्रतीक के रूप में अपने साथ ले गए। मांडवपति‎ रतनपुर के महाराजा बाहुराय के‎ सहयोगी थे। वे अपने साथ‎ संगमेश्वर का स्तंभ भी विजय‎ स्वरूप ले गए थे। वह यह भी बताते हैं कि मंदिर के शिखर केंद्र बिंदु के‎ ठीक नीचे प्रतिमा स्थापित होती है।‎ शिखर और मूर्ति का केंद्र एक ही‎ होने से निरंतर ऊर्जा‎ प्रवाहित होती रहती है। जब हम‎ मूर्ति के आगे सिर झुकाते हैं तो‎ हमारे अंदर भी वह सकारात्मक‎ ऊर्जा प्रवेश करती है।‎ शिखर का ऊंचा बनाने का‎ कारण यही है कि मंदिर के ऊपर‎ से भी कोई प्रतिमा को लांघ न‎ सके। यही भोरमदेव के शिखर का‎ रहस्य है।

सुंदरलाल बर्मनhttps://majholidarpan.com/
Sundar Lal barman (41 years) is the editor of MajholiDarpan.com. He has approximately 10 years of experience in the publishing and newspaper business and has been a part of the organization for the same number of years. He is responsible for our long-term vision and monitoring our Company’s performance and devising the overall business plans. Under his Dynamic leadership with a clear future vision, the company has progressed to become one of Hindi e-newspaper , with Jabalpur district.

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