आरक्षण के साथ माझियों के वंशानुगत रोजगार के माध्यम तालाब,रेतवाड़ी भी अधिकार में नहीं हैं
मध्यप्रदेश
अमर नोरिया ( पत्रकार ) नरसिंहपुर
जागो मांझी वीरों जागो जो राम को भव से पार लगाए आज उनकी इस दुर्दशा का कारण कौन
वो श्री राम सखा केवट
आज भी राजनीतिक दलों की दोहरी नीतियों के चलते अपने हक और अधिकारों से वंचित है । एक ओर जहां 14 जून 1992 को जबलपुर में आयोजित किये गये विशाल माझी कुम्भ में प्रदेश भर के लाखों माझियों के सामने दिए गये वायदे में माझी की पर्याय ढीमर,भोई,केवट,कहार, मल्लाह,निषाद आदि को संवैधानिक रूप से जनजाति की सुविधाओं के लाभ मिलने में पिछले 7 साल से केंद्र में और 17 साल से प्रदेश में भाजपा की सरकार होने के बाद भी अड़ंगा लगा हुआ है, तो दूसरी और माझी समाज के परम्परागत और वंशानुगत रोजी रोजगार के जो साधन हैं उनपर भी सरकार हमें अपना अधिकार नहीं दे पा रही है । नदी तटों,तालाबों पर रेतवाड़ी के परम्परागत और वंशानुगत रोजी रोजगार को लेकर पट्टे देने की मुख्यमंत्री शिवराज सिंह जी चौहान की वर्ष 2012 में मछुआ पंचायत में की गई घोषणा और उसपर जारी किये गये आदेश के बाद भी जमीनी धरातल पर आज 10 साल बाद भी दिखाई नहीं देती है । प्रदेश में राजनीतिक दलों में मछुआरों के नाम पर प्रकोष्ठ का गठन कर राजनीति तो खूब की जा रही है किंतु इन्ही मछुआरों के नाम पर सरकार ने 14 दिसम्बर 2012 को गजट नोटिफिकेशन जारी कर परम्परागत एवं वंशानुगत मछुआरों के कल्याण और विकास सम्बन्धी नीति के बिंदुओं पर विचार को लेकर मछुआ कल्याण बोर्ड का गठन किया था, किन्तु 2012 से मछुआ कल्याण बोर्ड के माध्यम से मध्यप्रदेश के वंशानुगत मछुआरों के कल्याण और उनके हितों को लेकर बीते 10 वर्षों में क्या कार्य हुए हैं या पूर्व के मछुआ कल्याण बोर्ड के सदस्यों ने जो प्रस्ताव मध्यप्रदेश सरकार के समक्ष प्रस्तुत किये थे उस पर मध्यप्रदेश सरकार ने कितना अमल किया है यह जिज्ञासा का विषय आज भी बना हुआ है ? मध्यप्रदेश के निषाद वंशीय माझी समाज के लोगों को एक ओर जहां अपने संवैधानिक हक और अधिकारों के लिये जहां सड़क से लेकर संसद तक में आवाज उठानी पड़ रही है ठीक उसी तरह उन्हें अपने परम्परागत और वंशानुगत रोजी रोजगार के साधनों को पूंजीपतियों के हाथ में जाने से पिछले कई सालों से लगातार हो रहे आर्थिक नुकसान का खमियाजा भी भुगतना पड़ रहा है । मछुआरों के अधिकारों के लिये लगातार कार्य कर रहे प्रदेश के सम्मानीय साथियों से मिली जानकारी के अनुसार मध्यप्रदेश में मत्स्य महासंघ ( सहकारी ) मर्यादित राज्य की अग्रणी संस्था है जिसके तहत राज्य की पंजीकृत मछुआ समिति आती हैं । प्रदेश के बड़े जलाशय जो 1000 हेक्टेयर से अधिक वह मत्स्य महासंघ के अधीन हैं जिन्हें वह निविदा जारी कर 5 से 10 वर्ष की अवधि के लिए जलाशयों को पट्टे पर देती है और इन जलाशयों में मत्स्याखेट के ठेके करोड़ों रुपये में जाते हैं जिससे छोटी समितियों को बड़े जलाशयों में मत्स्याखेट कर अपने सदस्यों को रोजी के अवसर उपलब्ध हों सकें यह केवल दिवा स्वप्न जैसा लगता है, वर्ष 2003 से मत्स्य महासंघ के कामकाज को संचालन समिति के हाथ सौंप दिया गया है । महत्वपूर्ण बात यह है कि तब से मछुआरों के लिए जो कुछ जरूरी बातों की सूचना और जानकारी अगर सूचना के अधिकार के तहत भी प्राप्त करना चाहें तो वह मिलना मुश्किल भरा काम है क्योंकि इसे प्राधिकृत संस्था न होने के चलते सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत जानकारी देने हेतु बन्धनकारी नहीं माना गया था । प्रमाणित जानकारी उपलब्ध न होने की वजह से महासंघ के द्वारा किये जा रहे कार्यों व निर्णय से जो नुकसान छोटी मछुआरों की समितियों व मछुआरों को उठाना पड़ता है । मध्यप्रदेश में मछुआरों के हितों को लेकर जिस तरह से पारदर्शिता होनी चाहिए यह सरकार की प्राथमिकता रहना चाहिये मगर देखा जा रहा है कि परम्परागत और वंशानुगत मछुआरों को उनके हक और अधिकार सहित उनके मत्स्याखेट के जो अधिकार हैं उनपर उनका हक और कब्जा कैसे हो इसपर हम सबको बड़ा अभियान चलाना होगा ।