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Sunday, October 12, 2025

70 वर्षों से ग्रामीणों द्वारा रामलीला बना समाजिक समरसता की मिशाल

 गाँवों में आज भी नवरात्रि में रामलीला केवल धार्मिक आयोजन ही नहीं, बल्कि सामाजिक एकता और सांस्कृतिक धरोहर की पहचान भी है।

सिहोरा जबलपुर 

जबलपुर जिले के सिहोरा का निकटवर्ती ग्राम बरगी में वर्ष 1956 से बीते 70 वर्षों से ग्रामीणों के द्वारा ही लगातार रामलीला का मंचन किया जा रहा है। जिसमें रामायण के सभी पात्र गांव के ही रहते हैं और न ही कभी कोई रामलीला कंपनी को शामिल किया जाता है फिर भी रामलीला का जीवंत मंचन किया जा रहा है। जिसे गांव की लगभग चार पीढियां निभा चुकी हैं। जिसमें रामलीला की नींव जानकी प्रसाद पांडे, निरंजन मिश्रा, शिवप्रसाद मिश्रा, रामात्मज मिश्रा सारंग जी, श्यामसुंदर विश्वकर्मा, लटोरा सोनी , भैंरो कोटवार आदि ने रखी थी। शुरुआत: में यह रामलीला की परंपरा प्रायः किन्ही बुज़ुर्ग संत, एवं ग्राम के प्रतिष्ठित व्यक्ति की पहल से शुरू हुई थी।। विशेषता: मंचन में आधुनिक साधनों की जगह स्थानीय कलाकार, पारंपरिक वाद्य और ग्रामीण परिवेश की सादगी प्रमुख रही है जिसका महत्व आज भी यह है कि धार्मिक आस्था को मज़बूती मिलती है। और गाँव में एकता और भाईचारा बढ़ता है। नई पीढ़ी को अपनी संस्कृति और परंपराओं से परिचित कराया जाता है। ग्रामीण समाज के हर वर्ग के लोग—बच्चे, युवा, महिलाएँ और बुज़ुर्ग—रामलीला के आयोजन से जुड़े रहते हैं।

मढिया में गुप्तकालीन मूर्ति

ग्राम बरगी की प्रमुख बड़ी मढिया में पहले एक कुआँ होता था जिसके पाटी में देवी माता की कई मूर्तियां विराजी हैं लेकिन सुरक्षा की दृष्टि से कुआँ को ढककर उसे बंद कर दिया गया जहां आज भी मूर्ति स्थापित हैं और समय के साथ बदलाव होते हुए इसी स्थान पर सुसज्जित मढिया का निर्माण हो गया है और यहीं पर रामलीला का आयोजन होता है, वैसे तो गांव भर में चार धर्मस्थलों में नवरात्रि में देवी प्रतिमा स्थापित होती हैं जिन्हें दर्शन करने आसपास के लोग पहुंचते हैं और भक्तिभाव के साथ दशहरा का आनन्द लेते हैं।

शिक्षित ग्राम की पहचान

इस तरह, सदी भर से चल रही रामलीला की यह परंपरा न सिर्फ़ भक्ति का प्रतीक है बल्कि ग्रामीण जीवन में संस्कृति, शिक्षा और मनोरंजन का भी महत्वपूर्ण आधार बनी हुई है जो कि एक शिक्षित ग्राम की पहचान भी पूरे जिले मे बना हुआ है, दशहरे के समय रावण दहन तक चलने वाली यह रामलीला पूरे गाँव के लिए उत्सव का रूप ले लेती है।

ग्राम की संस्कृति

ग्राम बरगी की संस्कृति और आस्था का प्रतीक बनी रामलीला की परंपरा 1956 से आज भी पूरे गाँव में उतनी ही जीवंत है, जितनी 70 वर्ष पहले थी। इतिहास गवाह है कि ग्राम बरगी में धार्मिक आयोजन केवल पूजा-अर्चना तक सीमित नहीं रहे, बल्कि उन्होंने समाज को जोड़ने और सांस्कृतिक पहचान को सहेजने का काम भी किया है।

ग्राम के ही जानकारों में पण्डित रामेश्वर पांडे, पण्डित द्वारका प्रसाद त्रिपाठी, सन्तोष मिश्रा, राघवेंद्र मिश्रा, मूलचंद मिश्रा, गेंदलाल यादव, कोमल सोनी, लोचन सोनी, आदि के अनुसार, करीब सन् 1965 के दशक में बरगी गाँव में रामलीला मंचन की शुरुआत स्थानीय संतों और समाजसेवियों की प्रेरणा से हुई। उस दौर में न बिजली थी, न आधुनिक साधन। मिट्टी के बने अस्थायी मंच, लालटेन की रोशनी और पारंपरिक वाद्यों के साथ कलाकारों ने श्रीराम, सीता, हनुमान और रावण के रूप धारण किए। दर्शक वर्ग के लिए यह आयोजन धार्मिक आस्था के साथ-साथ मनोरंजन का भी एकमात्र साधन था।

समाजिक समरसता

ग्राम का यह रामलीला सिर्फ़ धार्मिक कार्यक्रम नहीं, बल्कि सामाजिक एकता का मंच भी है। जिसमे सभी जाति और वर्ग के लोग इसमें भाग लेते हैं और सहयोग करते हैं। ग्राम के अन्य लोग भी पोशाक व आभूषण बनाने में योगदान देते, जबकि कुछ मंच की सज्जा और व्यवस्था संभालते हैं। जो इस गांव की पारंपरिक समाजिक समरसता की पहचान बना हुआ है।

सुविधा विहीन शुरुआत

आधुनिक दौर में भी जारी परंपरा

आज भले की तकनीक ने मंचन में बदलाव ला दिया है जिसमे ध्वनि विस्तारक यंत्र, जनरेटर, बिजली की झालरें और रंग-बिरंगे मंच सज्जा का प्रयोग होता है—लेकिन मूल भावना वही है। ग्रामीणों का उत्साह, भक्ति और परंपरा को बचाए रखने का संकल्प इसे अब भी ज़िंदा रखे हुए है। जबकि शुरूआत में तो न ही बिजली थी और न ही आधुनिक वाद्य यंत्र थे फिर भी कलाकारों के दम पर और देशी पारंपरिक संगीत यंत्रो के सहारे ही कार्यक्रम प्रसिद्ध था जिसमे आसपास के सैकड़ों गांव के लोग यहा दशहरा में शामिल होने पहुंचते थे। आज भी टेलीविजन और मोबाइल, इन्टरनेट होने के बाद भी यहां के लोगों में उतना ही जुनून है ।

दशहरा में मेला का आयोजन

विशेषता यह है कि सत्तर वर्षों से निरंतर चल रही यह परंपरा गाँव की पहचान बन चुकी है। यहां दशहरा ग्यारश के दिन धूम धाम से मनाया जाता है और मेले का भव्य आयोजन होता है, दशहरे पर रावण दहन के साथ जब रामलीला का समापन होता है, तो पूरा गाँव भक्ति और उत्सव के रंग में सराबोर हो उठता है। यह ऐतिहासिक परंपरा आज भी बताती है कि भारतीय ग्रामीण संस्कृति में आस्था और एकजुटता की जड़ें कितनी गहरी हैं।

सुंदरलाल बर्मनhttps://majholidarpan.com/
Sundar Lal barman (41 years) is the editor of MajholiDarpan.com. He has approximately 10 years of experience in the publishing and newspaper business and has been a part of the organization for the same number of years. He is responsible for our long-term vision and monitoring our Company’s performance and devising the overall business plans. Under his Dynamic leadership with a clear future vision, the company has progressed to become one of Hindi e-newspaper , with Jabalpur district.

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